Anurag Pandey "नारी जन्म से नहीं होती, बनाई जाती है"
Updated: Sep 12, 2020
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नारीवाद शब्द के उदय पर संशय है, आमतौर पर ये माना जाता है के काल्पनिक समाजवादी चार्ल्स फोरियर ने 19 वीं शताब्दी में महिलाओं को समान अधिकार की वकालत करने के लिए नारीवाद शब्द का सबसे पहले प्रयोग किया था। राजतन्त्र व्यवस्था को खत्म करके उदारवादी राज्य (न्यूनतम राज्य की अवधारणा जिसमें राज्य के कल्याणकारी चरित्र का अस्तित्व नहीं था) स्थापित करने के लिए कई यूरोपियन राज्यों में क्रांतियाँ होती हैं, इस युग को पुनर्जागरण काल का जन्मदाता भी माना जाता है। जहाँ तर्क और वैज्ञानिक सोच को प्रमुखता मिली, किन्तु इण सभी आंदोलनों से महिलाओं को अलग रखा गया, यहाँ तक की उदारवादी राज्य में भी महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं मिला, जिनमें समान वेतन का अधिकार (आर्थिक अधिकार) और वोट देने का अधिकार (राजनीतिक अधिकार) भी शामिल थे। माना जा सकता है के उस दौर के पुनर्जागरण आन्दोलन से महिलाओं को दूर रखा गया। मतलब के ये आन्दोलन भी पूर्ण नहीं था, समानता पर आधारित नहीं था क्योंकि इन सभी आंदोलनों के बावजूद भी महिलाओं को समानता के लिए संघर्ष करना पड़ा। समानता ना देने की वकालत का आधार लिंग भेद और महिलाओं का पुरुषों की तुलना में शारीरिक रूप से कमजोर होना माना गया, दूसरे अर्थो में महिलाओं को समान अधिकार ना देने के पीछे जो तर्क दिया गया वो इस पुनर्जागरण काल की वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के ही सिद्धांत के विरुद्ध था और जो तर्क रखे गये थे वो सदियों पुराने प्राकर्तिक नियमों का हवाला देते थे, वैज्ञानिक सोच के उस दौर में प्राकर्तिक सोच का क्या स्थान था और इसे न्यायसंगत कैसे साबित किया गया? ये बात समझ से परे है, लिंग भेद का समाज में मजबूती से स्थापित रहना, क्रांति और तार्किक सोच को पुरुषों तक सीमित कर देना इत्यादि विचार महिलाओं को समानता ना देने के पक्ष में एक परम सत्य की तरह खड़ा था। आज भी हममें से कई महिलाओं को तार्किक नहीं मानते, उनकी यौनिकता पर नियंत्रण रखने का पक्ष लेते हैं क्योंकि वो शारीरिक रूप से पुरुषों के मुकाबले कमजोर हैं वगेरह ऐसी सभी खोखली मान्यताओं के आधार पर महिलाओं को ये पुरुषप्रधान समाज अपना सर्वांगीण विकास करने से रोकता है। जबकि अतार्किकता पुरुषों में भी होती हैं और शारीरिक बल ही अगर सब कुछ होता तो देश के सारे पहलवान ही सभी कार्यों को करने के लिए उपयुक्त होते। और अच्छे दिन ला रहे होते।
इसी समानता के अधिकार को प्राप्त करने के लिए नारीवादी आन्दोलन शुरू होते हैं, और कई नारीवादी विचारकों ने अपने विचारों को कलमबद्ध किया, इन्हें अलग अलग श्रेणी में रखा जाता है जैसे, उदार नारीवाद, समाजवादी नारीवाद और आमूल (Radical) नारीवाद। उदार नारीवाद उदारवादी सिद्धांतों की परम्परा पर आधारित है, इसमें स्वतंत्रता, समानता, तथा न्याय का वर्णन करते हुए ये सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है कि बिना लैंगिक समानता लाए उपरोक्त लिखित अवधारणाओं को प्राप्त नहीं किया जा सकता। समाजवादी नारीवाद नारी दमन को वर्ग विभेद से जोड़ता है, अपने परिक्षण के लिए समाजवादी नारीवाद मार्क्सवादी वर्ग विभेद का सहारा लेता है और इसकी आलोचना प्रस्तुत करते हुए तर्क रखता है के मार्क्सवादी वर्ग के सैद्धांतिकरण में लिंग भेद है और मार्क्स स्वयं लिंग को वर्ग का आधार नहीं मानता। आमूल नारीवाद उदारवादी और मार्क्सवादी दोनों नारीवाद की आलोचना करता है और पितृसत्ता पर तीखा हमला करता है, इनका मानना है के पुरुषों का अधिपत्य एक व्यवस्था है और ये व्यवस्था यौन आधारित आधिपत्य के आधार पर लैंगिक आधार पर नारियों का शोषण तथा दमन करती है, और ये व्यवस्था एतिहासिक रूप से नारियों के दमन और शोषण का सबसे प्राचीन और विकृत स्वरुप है। जिसका आधार सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक ना होकर प्राकर्तिक है।
आमूल नारीवाद में कुछ विचारकों पर थोड़ी चर्चा करेंगे इसके बाद मैं स्त्रीवाद पर अपने विचार रखूंगा, केट मिल्लेट 1970 के दशक की विचारक रहीं हैं और उनका मानना था के पितृसत्ता के जरिये पुरुषों ने दो आधारों पर नारियों पर अपना अधिपत्य जमाया, पहला सामाजिक सत्ता और दूसरा आर्थिक सत्ता। गेरडा लरनर पितृसत्ता को परिवारिक संरचना से जोड़ती हैं, पहले में ये बताती हैं के परिवार में नारी और बच्चों पर पुरुष का नियंत्रण और दूसरे में समाजिक व्यवस्था में इस पुरुष वर्चस्व का विस्तृतिकरण होता है जिसका परिणाम पुरुष सभी सामजिक संसाधनों, शक्तियों पर अपना नियंत्रण रखते हैं और नारियों को इन सभी से वंचित रखा जाता है। लरनर कहती हैं के इसी विचारधारा के जरिये ये सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है के पुरुष समस्त नारियों से हर मामले में उत्कृष्ट हैं और नारी पुरुष की सम्पत्ति है जिसे हर हाल में पुरुष के नियंत्रण में रहना है। निवेदिता मेनन और उमा चक्रवर्ती कुछ ऐसी भारतीय विचारक हैं जो नारीवादी विचारों को भारत में प्रसिद्ध करने के लिए जानी जाती हैं। भारतीय नारीवादी विचारक पश्चिम या यूरोप के नारीवाद से खुद को अलग करती हुई नजर आती हैं क्योंकि भारत में पितृसत्ता का अनुभव वैसा नहीं रहा जैसा यूरोप या पश्चिमी राज्यों में रहा है। संक्षेप में, भारत में पितृसत्ता हर धर्म, जाति, क्षेत्र में अलग नजर आती है, हिन्दू महिला एक अलग तरह के पितृसत्ता में रहती हैं तो मुस्लिम महिला का शोषण हिन्दू महिलाओं के शोषण से अलग है, वहीं उच्च जातियों में महिलाओं का शोषण अलग है और निम्न जाति में अलग इत्यादि।
पुरुष सोच और महिला शोषण
शुरुआत इस बात से करते हैं के मै एक पुरुष हूँ, और इस लेख में मै जो कुछ भी लिखूंगा वो पुरुष, पुरुषवाद और समाज में पुरुष प्रधानता की विस्तृत आलोचना होगी, हालाँकि ये सब बातें एक स्त्री मुझसे बेहतर अच्छे से समझ सकती है। मैं इस लेख में महिलाओं के शरीर से सम्बंधित किसी समस्या या उनकी बायोलॉजिकल संरचना पर कुछ नहीं लिख रहा, लिख भी नहीं सकता, मैं स्त्री नहीं हूँ, और स्त्री ना होने के कारण मैं उनकी कुछ समस्याओं पर थोड़ी बहुत सोच रख सकता हूँ, लेकिन समझ नहीं सकता। मैं पुरुष हूँ, और रहूँगा, महिला होने का एहसास या पीड़ा सिर्फ एक महिला समझ सकती है, पुरुष नहीं। ये बात अलग है के मैं या कोई और पुरुष महिलाओं के किसी भी मुद्दे पर उनके साथ खड़े हो सकते हैं, समर्थन कर सकते हैं, दकियानूसी सोच का विरोध कर सकते हैं, अधिकारों की लड़ाई में साथ दे सकते हैं वगैरह, लेकिन एक पुरुष की सोच वहां तक नहीं जा सकती, जो तथ्य कई स्त्रियाँ लगभग रोज फेस करतीं हैं या झेलने पर विवश हैं। फिर भी मैं स्त्री विमर्श पर कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। मैं इस तथ्य से अवगत हूँ के जितनी जल्दी एक महिला स्त्रीविमर्श पर अपने विचारों को कलमबद्ध कर सकती है, मैं नहीं कर सकता। यहाँ पुरुष होने के नाते मेरी सोच का एक सीमित दायरा है। मैं वैसी समस्याएं नहीं फेस करता जो महिलाएं करती हैं। कर भी नहीं सकता। मैं लैंगिक रूप से एक पुरुष हूँ।
मैं कोशिश करूंगा के महिलाओं की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति पर कुछ विचार रख सकूं साथ ही एक कल्पनावादी समाज को खोजने का प्रयास करूं, ये जानने की कोशिश करूंगा के अगर पितृसत्तात्मक समाज ना होता तो समाज क्या और कैसा होता?
सामाजिक
हमारा समाज एक पितृसत्तात्मक समाज है, जहाँ हर क्षेत्र में पुरुष वर्चस्व या पुरुषवादी सोच का वर्चस्व है। प्रमुख नारीवादी मानव-विज्ञानी मारग्रेट मीड के विचारों को अगर यहाँ कलमबद्ध करें तो ज्ञात होगा के पुरुषप्रधान समाज में स्त्री को पुरुषों से कम माना जाता है, हर क्षेत्र में आज भी ये आम धारणा है के फलां काम एक पुरुष बेहतर तरीके से कर सकता है। कारण गिनाने के लिए पौरुष शक्ति, महिलाओं का शारीरिक रूप से पुरुषों के मुकाबले कम होना, स्त्रियों के मुकाबले सोचने समझने की पुरुषों की तथाकथित विलक्षण योग्यता, काफी है। यहाँ महिला पुरुष के कार्यों में सीधा विभाजन है जिसमें पुरुष घर के बाहर के सभी कार्य करने के लिए उत्तरदायी है, वहीं घर के कार्यों के लिए नारियों को उपयुक्त माना जाता है, इसका कारण प्राकर्तिक अंतर को बताया जाता है, जो तार्किक और तथ्यात्मक रूप से एक गलत अवधारणा है, क्योंकि इसमें सामाजिक, राजनीतिक पारिवारिक समानता के सिद्धांत को पूरी तरह से नकार दिया जाता है, उदाहरण के लिए पुरुष घर के काम कर सकता है, बच्चे पाल सकता है और नारी बाहर के सभी कार्य कुशलतापूर्वक कर सकती है।
इसके अतिरिक्त पुत्र रत्न की प्राप्ति की लालसा, कन्या प्राप्ति पर खुश ना होना इत्यादि कई गुण हैं इस पुरुष प्रधान समाज के। साथ ही साथ ये समाज स्त्रियों को देवी का दर्जा देता है, नारियों की पूजा करने की बात करता है, इस समाज में छोटी कन्याओं को खाना खिलाने का रिवाज है नव दुर्गे के दिनों में, यही समाज रानी लक्ष्मी बाई को मर्दानी कहते नहीं थकता, इसी समाज में इंदिरा गाँधी को पहली मर्द प्रधान मंत्री कहा जाता है, पुरुष तो खुश होगा ही, कई महिलाएं भी खुश होती हैं के उन्हें भी पुरुषों के समतुल्य माना जाता है, बस उन्हें या तो लक्ष्मी बाई जैसा या इंदिरा गाँधी जैसा कुछ करना होगा। लेकिन कोई ये सवाल खड़ा नहीं करना चाहता के इन सभी महिलाओं को मर्दानी क्यों कहा जाता है? क्या किसी महिला के लिए मर्द शब्द का पर्यायवाची शब्द पूरे शब्दकोश में नहीं है?
लेकिन यही महिलाएँ अगर इस पुरुष प्रधान समाज की कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाती हैं तो उन्हें विभिन्न नामों से नवाजा जाता है, कोई भी धर्म हो उस समय देवी रूप, स्त्रियों का धर्म में उच्च स्थान इत्यादि भूल जाता है, पुरुषवादी सोच हावी होने लगती है।
वहीं दूसरी ओर पुरुषों के लिए ऐसी कोई संज्ञा नहीं है। उदाहरणस्वरुप, घर का बेटा प्रेम विवाह करे तो बेटा महान, प्यार करके ब्याह कर लाया है, छोड़ा नहीं, जिस लडकी से प्रेम विवाह किया, कई मामलों में ये देखा गया है के कुछ रटे रटाये शब्द उस लड़की के कान में कभी पड़े होंगे, मेरे बेटे, भाई, देवर जी (देवर जी को छोड़कर बाकी बातें एक पिता, एक भाई भी कह सकता है, आपके मस्तिष्क में अगर मम्मी, बहन आई इस वाक्य को पढकर तो आप पुरुषवादी सोच से घिरे हुए हैं) को फंसा लिया (मानो बेटा या भाई ना हुआ गाय हुआ, बिल्कुल दीन- दुनिया से अंजान एक परगृहवासी) लेकिन ऐसे ही समाज में लड़की को दूसरे लड़कों को सिर्फ भाई बोलना है, उन्हें प्यार करने का, अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी चुनने का कोई अधिकार नहीं, ये पुरुषप्रधान समाज का सबसे विकृत रूप है। लड़की ने अगर शादी के बाद तलाक ले लिया या कोई केस कर दिया तो फिर यही समाज कितना जागरूक हो जाता है, उस लड़की से पूछिए। जिसके पति की कल तक कोई बुराई करते नहीं थकता था, आज एक केस की वजह से लड़का तुरंत बेचारा हो जाता है। और कभी ही शायद कोई ये कहता/ती मिले के लड़की ने तलाक लिया, अधिकतर लोग यही कहते पाए जाएंगे के लड़के ने तलाक लिया और सारा इल्ज़ाम लड़की पर, भले ही सभी सच जानते हों, लेकिन दिमाग में जो पुरुषवाद भरा हुआ है, जिसमें लडकी को त्याग की देवी माना जाता है, वो दिमाग यही बार बार आवाज देता है के त्याग की देवी को त्याग करना चाहिए था, एक ना एक दिन (बुढ़ापे में ही सही), लड़का ठीक रास्ते पर आ जाता, तब तक झेला क्यों नहीं लड़की ने, बस इसी महान सोच की वजह से लड़की ही दोषी।
पुरुषवादी सोच हर जगह है, क्या समाज, क्या पुलिस, क्या प्रशासन क्या न्याय व्यवस्था। रूसो ने कहा था, “व्यक्ति स्वतंत्र पैदा होता है, लेकिन सर्वत्र वो बेड़ियों में जकड़ा रहता है, रूसो की इस बात में व्यक्ति की जगह स्त्री कर देना चाहिए।
आजकल रोज कुछ ना कुछ देखने सुनने को मिल जाता है, दंगल फिल्म के बाद खासतौर से ये स्लोगन प्रसिद्द हुआ है, “लड़कियां लड़कों से किसी मामले में कम हैं क्या?” कुछ तथ्य सामने आते हैं, जैसे, “आजकल स्त्रियाँ कई मामलों में आगे बढ़ रहीं हैं, कई क्षेत्रों में नाम कमाया है, स्त्रियाँ खुलकर बोलने लगी हैं, कोई ऐसा कार्य कर रहीं हैं जो सिर्फ लड़के किया करते थे, जैसे सेना में जाना, पुलिस में भर्ती और मनचलों को सबक सिखाना, प्रशासनिक सेवा में किसी गलत कार्य को उजागर करती हुई, शिक्षिका बनकर देश का भविष्य सुधारती हुई, मीडिया में जनता की आवाज बुलंद करती हुई, राजनीति में सभी की आवाज बनती हुई इत्यादि। कुल मिलाकर ये बताती हुईं के “पुरुषों के बराबर या किसी मामले में पुरुषों से कम नहीं है और हमें ये मानसिकता बदलनी होगी के स्त्रियाँ पुरुषों से कमतर हैं।“आखिर हम सभी ये सब वक्तव्य दे ही क्यों रहे हैं? क्या जरूरत है इस वक्तव्य की? जरूरी है क्या के लड़कियां महान तभी मानी जाएँगी जब वो लड़कों से किसी मामले में कम ना हों? वरना कुछ भी करें वो महान नहीं हो सकतीं?
ये विचार अपने आप में पुरुषवादी है, मेरे कुछ सवाल, आखिर दंगल फिल्म में आमिर खान अपनी लड़कियों को लडके जैसा दिखने वाली क्यों बना रहा है? क्यों उनके बाल छोटे करवा रहा है? क्या लम्बे बाल रखने से लड़कियां दंगल नहीं जीत सकती? क्या जब तक लड़कियां लड़कों को दंगल में हरा ना दें तब तक उन्हें प्रशंसा नहीं मिलेगी? क्यों सेना में जो महिलाएँ जा रही हैं उनके बारे में ये वक्तव्य दिया जा रहा है के उच्च पद नहीं दिया जायेगा क्योंकि पुरुष सैनिकों को महिला अधिकारी के अंडर कार्य करने में दिक्कत आएगी? क्यों पुलिस में भर्ती हुई महिलाओं को ही मनचलों को सबक सिखाने का कार्य ज्यादा दिया जाता है? दूसरे कई कार्य हैं जो पुलिस करती है, उसमें स्त्री प्रतिनिधित्व कितना है? प्रशासनिक सेवा में महिला प्रतिनिधित्व कितना है? केबिनेट रैंक तक कितनी महिलाएँ पहुँच पाती हैं? शिक्षिका अधिकतर ये शिकायत करती क्यों नज़र आती है के लड़कों को क्लास में सम्हालने में उन्हें सबसे ज्यादा दिक्कत होती है और वो किसी पुरुष शिक्षक की मदद लेने पर मजबूर होतीं हैं? उच्च शिक्षा में भले ये उतना व्यापक ना हो, लेकिन कई डिग्री कॉलेज, या विश्वविद्यालय होंगे ही जहाँ महिला शिक्षिका को ऐसी शिकायतें रहती होंगी और एक समय बाद वो अवॉयड करना शुरू कर देती होंगी क्योंकि सीनियर्स ये मानने लगेंगे के ये शिक्षिका इस पद के लिए उपयुक्त ही नहीं, क्यों राजनीति में गिनी चुनी महिलाएं नजर आती हैं? क्यों ग्राम प्रधान भले ही कोई महिला हो, वहां घर के किसी पुरुष को लोग पूछते हैं? मीडिया में कितनी महिलाओं का प्रतिनिधित्व है और वो किस वर्ग से आती हैं? क्या हर वर्ग की महिला का प्रतिनिधित्व है मीडिया में? अगर इन सभी सवालों का जवाब नकारात्मक है तो समान अधिकार मिलना चाहिए, लडकियां लड़कों से कम नहीं हैं इत्यादि बातें पुरुषवादी सोच से निकल रहीं हैं, इसका मतलब के समान अधिकार की बात करना बेमानी है और लड़कियां लड़कों से कम नहीं हैं, ये बस खुश होने के लिए अच्छा स्लोगन है। यहाँ सिमोन डी बोवोअर के शब्द उपयुक्त हैं, वो कहती हैं के “नारी जन्म से नहीं होती, बनाई जाती है।”
एक और मानसिकता देखने को मिलती है, जिसमें स्त्रियाँ जो नारीवाद को या तो जानती नहीं या कम जानती हैं, ये सभी स्त्रियाँ कुछ हासिल करके या समाज में कोई स्थान पाकर (नौकरी वगेरह), अपनी तुलना पुरुषों से करती हैं और ये जताने का प्रयास करती हैं के उनके अंदर भी पुरुषों की तरह योग्यता है। कुल मिलाकर स्त्री होने का और स्त्री होकर कुछ पाने के आनंद को कई स्त्रियाँ पहचान ही नहीं पाती और वो इसे सिर्फ पुरुषों के बराबर या समानता तक सीमित करके देखती हैं, सफलता स्त्री की, आवाज स्त्री ने उठाई लेकिन इसे देखा जाता है पुरुषवादी नजरिये से।
कुल मिलाकर इसी समाज में ऐसी भी स्त्रियाँ हैं जो स्त्री होकर भी पुरुषवादी सोच की गुलाम हैं। लड़की को क्या करना चाहिए, कितने बजे तक घर वापस आ जाना चाहिए, प्रेम करने का अधिकार नहीं, घर गृहस्थी के कार्यों में दक्ष होनी चाहिए, इत्यादि, यही बातें ऐसी स्त्रियाँ पुरुषों में नहीं खोजती, इनके अनुसार पुरुषों को इन सब बन्धनों से मुक्त होना चाहिए, ताकि वो अपना सर्वांगीण विकास कर सकें या गृह कार्य में दक्ष होने की किसी पुरुष को कोई ख़ास आवश्यकता नहीं है। ये मानसिकता सिर्फ और सिर्फ स्त्री और स्त्रीत्व को ही नुकसान पहुंचा रही है जिसकी जड़ पुरुषवाद में है।
मैं नारीवादी विचारकों का समर्थन नहीं करता, हालाँकि उनके पुरुषवाद या पितृसत्ता पर उठाये सवाल और पुरुषवादी सोच को कटघरे में खड़े करने का पक्षधर हूँ, मेरी आलोचना इस बात पर आधारित है के नारीवादियों ने स्त्रीवादी समाज की रूपरेखा क्यों नहीं दी, क्यों स्त्रीवादी समाज बनाने के लिए कोई आन्दोलन खड़ा करने का प्रयास नहीं किया? इतने आन्दोलन, इतने लेख, किताबें लिखने के बाद भी पुरुषवाद और पितृसत्ता वैसे ही खड़ी है, इसका जवाब देने के लिए सभी धर्म, जाति, क्षेत्र की महिलाओं को ये क्यों नहीं समझाया गया के समाज में सबसे बड़ा विभेद स्त्री-पुरुष विभेद ही है और सभी स्त्रियों को एक साथ पुरुषवादी समाज के विरुद्ध लामबंद होना पड़ेगा, एक बार स्त्री-पुरुष विभेद खत्म हुआ एक बार पितृसत्ता खत्म हुई तो कई समस्याएं अपने आप ही खत्म हो जाएँगी।
राजनीतिक
राजनीतिक बात करते हैं, हमारी राजनीति भी पुरुष प्रधान ही है, हम मोदी जी को पूजते हैं, हम राहुल जी पर ज्यादा मेहरबान होते हैं, केजरीवाल जी को जीत की बधाई देते नहीं थक रहे, मुलायम-अखिलेश, उद्धव, लालू- तेजश्वी, राम बिलास-चिराग, कैलाश विजयवर्गीय-आकाश, राजनाथ सिंह-पंकज इत्यादि पिता पुत्र देश की राजनीति में योगदान दे रहे हैं, इनकी पत्नियों के नाम जानते हैं आप? इनकी बेटियों के नाम पता है आपको? लालू जी की बेटी, अखिलेश जी की पत्नी राजनीति में हैं, कितनी एक्टिव हैं? अगर नहीं हैं तो क्यों? देश का मीडिया क्यों इन्हें नजरअंदाज करता है? क्यों आज भी महिला सरपंच होने के बाद भी काम काज उसके पति, ससुर, भाई, पिता ही देखते हैं? क्यों वो सरपंच अपने खुद के नाम से नहीं जानी जाती? क्यों वो अपने पति, पिता, ससुर या भाई के नाम से जानी जाती है?
कई सवाल हैं,इनका जवाब तभी मिल सकता है जब ये पितृसत्तात्मक समाज खत्म होगा।
दूसरे नजरिये से सोचते हैं, मोदी जी ने अपनी माता को या धर्मपत्नी को प्रधानमन्त्री उम्मीदवार की तरह क्यों प्रोजेक्ट नहीं किया? प्रियंका गांधी आगे क्यों नहीं आईं? केजरीवाल जी ने अपनी पत्नी को दिल्ली के भावी मुख्यमंत्री लायक क्यों नहीं समझा? या किसी भी नेता ने अपनी पुत्री या पत्नी में वो आस्था क्यों नहीं दिखाई जैसे आस्था वो अपने “लायक” बेटे में देखते हैं? इनके जितने भी जवाब आएंगे वो सब पित्रस्त्ता से प्रभावित होंगे।
पढने में अच्छा लगा होगा, लेकिन मेरा ये लिखना भी पुरुषवादी सोच है, आखिर पुरुष होते कौन हैं ये तय करने वाले जो ऊपर मैंने लिखा? ये महिलाओं को खुद तय करना होगा, अपना स्थान खुद बनाना होगा, एक या दो ममता, सोनिया, जयललिता से कुछ नहीं होगा, हर स्त्री के मन में ये सवाल आना चाहिए।
एक कल्पना
अंत में मैं ऊपर लिखी गई बातों का जवाब खोजने की कोशिश करूंगा । ये जवाब एक कल्पना पर आधारित है, जो अगर हो जाए तो हम वास्तविक रूप में एक समतामूलक समाज में रहेंगे, एक ऐसे समाज में जो समाहित करने वाला होगा, जो समावेशी (Inclusive) समाज होगा, पितृसत्ता या पुरुषप्रधान समाज की तरह अपवर्जी (Exclusive) नहीं। मैं ऐसे समाज को स्त्रीवाद पर आधारित मान रहा हूँ जहाँ स्त्रीवाद की प्रधानता होगी। स्त्रीवाद क्या है? और ये पुरुषवाद से बेहतर क्यों है?
शुरुआत वेष-भूषा से करता हूँ। हम सभी कपड़ों से पहचान लेते हैं के कौन लड़का है कौन लड़की या ट्रांसजेंडर है। पुरुषवादी समाज में कपड़े सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बना दिए गये हैं, एक सवाल, “मैं एक अध्यापक हूँ, क्या हो अगर मैं किसी रोज साड़ी पहनकर अपने कॉलेज जाऊं, या लेडीज जीन्स, या कोई टी शर्ट, या प्लाजो कुर्ती, सलवार कमीज?
लोग हसेंगे, कॉलेज के छात्र और यहाँ तक की छात्राएं भी हसेंगी, जो इस लेख को पढ़ रहे होंगे वो भी हसेंगे, क्यों? क्योंकि हमारा ये पितृसत्तात्मक समाज स्त्रियों को पुरुषों से कम आंकता है, कम शब्दों में इन्फीरियर जेंडर, इसीलिए पुरुष और स्त्रियों के कपड़े अलग हैं, जहाँ स्त्रियाँ तो पुरुषों जैसे कपड़े पहन सकती हैं, लेकिन पुरुष स्त्रियों जैसे कपड़े नहीं पहन सकते, वो हंसी का पात्र बन जाएंगे, लोग मजाक उड़ायेंगे, लोग मजाक उड़ायेंगे क्योंकि वो पुरुषवादी सोच के गुलाम हैं, वो मजाक उड़ायेंगे क्योंकि पितृसत्ता उनके मन मष्तिष्क पर हावी है, क्योंकि उनके लिए यही सच्चाई है। चाहे वो स्त्री हो या पुरुष।
ये पुरुष साड़ी, सलवार कमीज वगेरह तब भी नहीं पहनेंगे अगर कोई बड़ा अभिनेता इन कपड़ों को पुरुष के कपड़े बताकर कोई विज्ञापन करे या अपने खुद के नाम पर कोई ब्रांड बना दे, जैसे सलमान साड़ी, ह्रितक प्लाजो, टाइगर सलवार कमीज इत्यादि, साथ ही ये कलाकार ऐसे किसी प्रोडक्ट को लांच भी नहीं करेंगे, पुरुष तो ये भी हैं, इनका भी मजाक उड़ेगा, ये सभी कितनी भी स्त्री स्वतंत्रता की बात करें, कितना भी मीडिया के सामने पत्नी प्रेम या स्त्री के प्रति जागरूकता दिखाएँ, इनमें से एक भी ऐसा कोई कार्य नहीं करेगा जो मैंने लिखा है, सोचिये मत मैं भी कभी ये कपड़े पहनकर कॉलेज जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाऊंगा, ऊपर मैं लिख चुका हूँ, मैं एक पुरुष हूँ, हालाकि मैं खुद ये दावा कर रहा हूँ के मैं पुरुषवाद का विरोधी हूँ, लेकिन कई पुरुषवादी आडम्बरों का खुलकर विरोध करने की हिम्मत मुझमें भी नहीं है। तो फिर कौन करेगा विरोध? स्त्री स्वयं विरोध करेंगी और कोई नहीं। लेकिन ये तब तक नहीं होगा जब तक स्त्रियाँ पुरुषवादी सोच से बाहर आकर स्त्रीवादी सोच को नहीं अपनाती, उनमें एकजुटता नहीं आती इत्यादि। मैं लेख के अंत में स्त्रीवाद की व्याख्या करने का प्रयास करूंगा।
प्रेम, ये अधिकार बहुसंख्यक परिवारों में सिर्फ पुरुषों के पास होता है, घर की अगर किसी लड़की ने प्यार नामक कोई अपराध कर दिया तो घर वालों की सालों की कमाई इज्जत तुरंत खत्म हो जाती है, लेकिन लड़के ने किया तो सबसे पहले देखा जाता है के जाति क्या है लड़की की, फिर स्टेटस देखा जाता है, फिर लड़के को समझाया जाता है के इससे अच्छी, इससे अच्छा परिवार है हमारी नजर में, लेकिन सॉफ्ट तरीके से, लड़का मान गया तो ठीक नहीं माना तो जहाँ कह रहा है करा दो, सोचिये अगर यही स्थिति लड़की की होती तब क्या होता? ज्यादा नहीं सिर्फ एक प्रसिद्द वाक्य लिखूंगा, जो मिलता हो, जैसा मिलता हो, जल्द से जल्द डोली में बैठा कर विदा कीजिये, फिर ससुराल वाले जानें। आप सोचिये क्या ये समानता है? क्या इन परिस्तिथियों में समानता आ सकती है?
ऐसे बहुत से मुद्दे हैं, जिनकी चर्चा यहाँ करना सम्भव नहीं, कई लेख लिखने पड़ सकते हैं, लेकिन हम सभी थोडा बहुत ही सही लेकिन जानते हैं के पितृसत्ता में एक स्त्री कहाँ खड़ी है, सोचिये अगर समाज पितृसत्तात्मक ना होकर स्त्रीवादी होता तो क्या होता?
कल्पना: स्त्रीवादी समाज की
स्त्रीवाद समझने से पहले स्त्री समझना जरूरी है, घबराइए मत, ये बात के एक स्त्री को समझना नामुमकिन है ये सिर्फ पुरुषवादी सोच का परिणाम है, स्त्री इंसान है, समझी जा सकती है, जरूरत स्त्री को बेटी, बहन, पत्नी, माँ, भाभी, मामी, चाची, ननद, सास, बहु इत्यादि से पहले इंसान समझने की है। और इस लेख में मैं स्त्री के नैसर्गिक गुणों की बात करूंगा, सामाजिक नहीं। आगे बढने से पहले मैं ये आग्रह करना चाहूँगा के आज के इस पुरुषवादी सोच और समाज को अपने मस्तिष्क से थोड़ी देर के लिए बाहर कर दीजिये। थोड़ी देर के लिए भूल जाइये के पुरुषवाद कुछ होता है, थोड़ी देर के लिए अपनी आज की सोच को छोड़ दीजिये। थोड़ी देर के लिए भूल जाइये के कोई आदर्श पति, आदर्श पिता, आदर्श भाई, आदर्श मायका, आदर्श ससुराल नाम की कोई चीज होती है, थोड़ी देर के लिए ये भूल जाइये के लड़के हैं, गलतियाँ करते हैं तो वजह लड़की ही होती है, भूलिए के किसी भी स्थिति में लड़के तो लड़के ही रहेंगे, भूलिए के लड़कियां तो दबाई ही जाएँगी, भूलिए क्योंकि ये सोच असली नहीं है, क्योंकि ये सोच एक मिथ है जो पुरुषवादी समाज ने हमारे दिमाग में भरी है।
स्त्री यानि दया, समावेशी, दूसरे के दुःख दर्द को तुरंत समझने वाली, सम्मान करने और सम्मान देने वाली, निर्माण की भावना, भेदभाव से मुक्त, जोड़ के रखने की सहज प्रवृत्ति, शक्ति, दृढ़ता। यहाँ से मैं स्त्रीवादी समाज की व्याख्या करूंगा जो कल्पनावाद पर आधारित है, लेकिन इसकी व्याख्या से पहले मैं एक या दो सवाल करना चाहूँगा;
पहला: रात के 11 या 12 बजे कोई लड़की अपने घर अकेले जा रही है, तो क्या होगा? उस लड़की का सामना तीन तरह के व्यक्तियों से हो सकता है, पहला: देखेगा फिर अवॉयड करके आगे बढ़ जाएगा, दूसरे में कुछ मनचले मिल सकते हैं, जो फब्तियां कसेंगे, तीसरे में अपराधिक प्रवत्ति वाले मिल सकते हैं, जिनसे उस लड़की की अस्मिता को खतरा हो सकता है, उसके साथ बलात्कार जैसा जघन्य कृत्य हो सकता है, जो सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं होता।
अब ऊपर किये सवाल पर वापस आते हैं, आप उस सवाल को पढ़कर सबसे अच्छा व्यक्ति किसे मानेंगे? शायद आप उसी को सबसे अच्छा मानेंगे जो अवॉयड करके चला गया, उस पर फर्क ही नहीं पड़ा, जैसे लड़के रात को जाते हैं, वो लड़की भी जा रही है या आप आलोचना करेंगे के अच्छा व्यक्ति था तो उसने उस लड़की को मदद करने की पेशकश क्यों नहीं की? यहाँ मैं कहूँगा के उस लडके का अवॉयड करना पुरुषवादी सोच की उपज है।
क्योंकि उस व्यक्ति को उस लड़की को देखना ही नहीं चाहिए था, उसके लिए ये बात ठीक उसी तरह नोर्मल होनी चाहिए थी जैसे कोई लड़का आधी रात कहीं जाता है तो उसकी नजर नहीं पड़ती। तो वो व्यक्ति भी कहीं ना कहीं पुरुषवादी सोच से ग्रसित था, जो शायद समाज, कानून का डर या किसी और वजह से उस लड़की पर फब्तियां नहीं कस पाया या उसने सोचा के इस वक्त अच्छे घर की लड़की सडक पर नहीं चलती है, इसलिए बचकर निकल जाना ठीक। उसका उस लड़की को देखना ही ये बता देता है के वो पुरुषवादी है, वही लड़का किसी दूसरे लड़के को वैसे ही देखेगा जैसे उसने उस लड़की को देखा? नहीं ना?
दूसरी बात जो कई बार खुद लड़कियों द्वारा पूछी जाती है, “आपको लड़कियों से बात करना नहीं आता क्या?” या आपको लड़कियों से बात करने की तमीज नहीं है। मैं बताना चाहूँगा के ये या ऐसा वक्तव्य भी गलत हैं, लड़कियों का ये कहना के “बात करना नहीं आता” इस सवाल से कट्टर पुरुषवाद की बू आती है, क्यों लड़कियों से बात करना आना चाहिए? इसका कोर्स कहाँ होता है? ये ठीक वैसा ही वक्तव्य है जैसे कोई किसी लड़की से कहता है, ऐसे मत बैठो, ये मत पहनो, कैसे खा रही हो, लड़की हो लड़की की तरह रहो, वगेरह। और लडकियां इस वाक्य को अपना निजी अधिकार समझकर बोलती हैं, बिना ये जाने के वो खुद अपने आप को पुरुष से निम्न जेंडर स्वीकार कर रहीं हैं। किसी का पति, पिता या भाई उसपर चिल्लाता नहीं है, मारता पीटता नहीं हैं, दबा कर नहीं रखता, स्त्रियाँ इसी को सफल जीवन मानने लगती हैं, ऐसा पिता,पति, भाई आदर्श माने जाते हैं। कई एड में आपने देखा होगा, पति खर्राटे मार रहा है, अचानक उठता है, बीवी को समझाता है, माफ़ी वाली मुद्रा में होता है और बीवी जवाब देती है के कई पतियों से आप बहुत अच्छे हैं, इसलिए खर्राटे माफ़, यह मुद्दा खर्राटे मारने का नहीं है, यहाँ मुद्दा है के लड़की के दिमाग में पुरुषवादी सोच भरी हुई है। मेरे भाई, पापा, पति ससुराल ने कोई रोक टोक नहीं लगाई, मैं बड़ी खुसनसीब हूँ, ये विचार भी पुरुषवादी सोच से निकलता है। कायदे से ऐसी स्थिति होनी ही नहीं चाहिए थी, पुरुषवादी समाज है तो ऐसी बातों को सर आखों पर बिठाया जाता है।
अब उस कल्पनावादी समाज में चलते हैं जिसे मैं स्त्रीवादी समाज बोल रहा हूँ, ये स्त्रीवादी समाज आज के पुरुषवादी समाज से ज्यादा समावेशी होगा, इस स्त्रीवादी समाज में बिना मांगे सबको समान अधिकार मिले होंगे, इस स्त्रीवादी समाज में अगर कोई लड़की रात में 11 या 12 बजे भी घर जा रही होगी या कहीं और तो उसके साथ कुछ नहीं होगा, लड़कों के लिए भी ये नार्मल होगा। इस स्त्रीवादी समाज में किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं होगा, प्रेम करने की अपना जीवन साथी चुनने की आजादी होगी, पढ़ाई लिखाई करने पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा, लड़कियों और लड़कों के कार्य अलग अलग नहीं होंगे, चाहें वो घर में हों या किसी भी उपरोक्त लिखी गई नौकरी में, कोई ये भी नहीं बोलेगा के अधिकारी अगर लड़की हुई तो दिक्कत आयेगी या किसी महिला अधिकारी के अंडर पुरुषों को कार्य करने में दिक्कत हो सकती है। ऐसा होगा क्योंकि ऊपर मैं स्त्री की व्याख्या कर चुका हूँ, लेकिन फिर भी सवाल तो उठ ही रहा होगा के आखिर ऐसा क्या होगा इस स्त्रीवादी समाज में जो वो इतना पारदर्शी और समावेशी होगा?
इस स्त्रीवादी समाज में पुरुष प्रधानता नहीं होगी, महिला और पुरुष दोनों की समावेशी प्रधानता होगी, ध्यान रहे मैं समावेशी प्रधानता की बात कर रहा हूँ, जहाँ लडके और लडकी में कोई भेद नहीं होगा और आज हम सभी जिस पुरुषवादी सोच से ग्रसित होकर कुछ बोलते या सोचते हैं, इस स्त्रीवादी समाज में स्त्रीवादी सोच से प्रभावित होकर सोचेंगे, बोलेंगे, कई शब्द, कई वाक्य जो आज बहुत प्रचलित हैं, उनका अस्तित्व ही नहीं होगा इस स्त्रीवादी समाज में।
स्त्री किसी भी पुरुष से ज्यादा समझदार होती है, वो किसी भी परिस्थिति को पुरुषो से बेहतर समझती है, भले ही वो पढ़ी लिखी ना हो और पुरुष महान ज्ञानी हो। हमें अपने घर में झांकने की जरूरत है जहाँ कई मामलों में हमारी माँ पिता से ज्यादा तार्किक साबित हुई होंगी, भले ही उनकी सलाह मानी गई हो या नहीं, लेकिन एंड में ये वाक्य हम सबने सुना होगा “तुम सही थीं।“
एक स्त्री अपने बच्चों पर ज्यादा ध्यान देती है उनके छोटे से व्यवहार में परिवर्तन से उनको समझ जाती है, पुरुष सामान्यतः इतनी गहराई से नहीं सोचते, तो बच्चों एक आदर्श शिक्षा एक स्त्री ही दे सकती है, पुरुष नहीं। ये कुछ उदाहरण हैं, सोचिये अगर स्त्रीवादी समाज होता तो क्या होता?
एक स्त्रीवादी समाज में पुरुष भी स्त्री की तरह से तार्किक होगा और दोनों मिलकर एक सही निष्कर्ष निकालेंगे किसी भी मुद्दे पर, किसी भी परिस्थिति में, तो ये वाक्य के “तुम सही थीं” होगा ही नहीं। परिवार में पुरुष और स्त्री दोनों अपने बच्चों पर बराबर ध्यान देंगे इस स्त्रीवादी समाज में, और इस वजह से आदर्श बच्चे बड़े होंगे। क्योंकि पुरुषों के पास भी एक स्त्री की तरह सोचने की आदत पड़ जाएगी, कार्य करने की आदत पड़ जाएगी, पुरुष भी समावेशी हो जाएंगे, पुरुषों के मन में दया रोष, गुस्से, इत्यादि से ज्यादा होगी, पुरुष भी दूसरे के दुःख दर्द को तुरंत समझने लगेंगे, सम्मान करेंगे, निर्माण की भावना तोड़ने से ज्यादा होगी इत्यादि।
बच्चों को आदर्श शिक्षा एक स्त्रीवादी समाज में ही मिल सकती है, यही बच्चे जब बड़े होंगे तब कुछ शब्दों का, कुछ कृत्यों का अस्तित्व ही नहीं होगा जैसे छेड़छाड़, बलात्कार, इत्यादि। रात में 11 या 12 बजे कोई लड़की कहीं भी जा रही होगी तो उस पर कोई फब्तियां कसने वाला नहीं होगा, बल्कि ये सबके लिए नोर्मल होगा, ना ही कोई उस लड़की का चरित्र चित्रण करेगा/गी। इसी समाज से “आपको लड़कियों से बात करना नही आता” जैसे वाक्य होंगे ही नहीं क्योंकि स्त्री या पुरुष की भाषा क्या होनी चाहिए ये व्यक्ति खुद तय करेगा/गी।
स्त्रीवादी समाज में अपने आप समानता आयेगी, ना कोई निम्न जेंडर होगा ना कोई उच्च जेंडर होगा, शादी-जीवन साथी चुनने का अधिकार सभी के पास समान होगा। अच्छे पिता, अच्छे भाई, अच्छे पति के साथ साथ अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नी की परिभाषा भी अलग होगी जो ज्यादा समावेशी और ज्यादा स्वतंत्रता देने वाली होगी। मायके और ससुराल भी अलग तरीके से परिभाषित होंगे। क्योंकि स्त्रियाँ पुरुषों से ज्यादा समावेशी प्रवर्ती की होती हैं। क्योंकि स्त्रियाँ पुरुषों से ज्यादा दूसरे के बेटे, बेटी, बहु, दामाद इत्यादि को सम्मान देती हैं। (सनद रहे मैंने आपको पुरुषवादी सोच को थोड़ी देर के लिए बाहर करने की गुजारिश करी है)।
युद्ध नहीं होंगे, दंगे नहीं होंगे, इस समाज में राजनीति में कोई झूठे वादे करने वाला/ली नहीं होंगे, राजनीति में किसी भी जेंडर का वर्चस्व नहीं होगा, बल्कि सभी को समान रूप से राजनीतिक क्रिया कलापों में भाग लेने की समानता होगी, ये शब्द भी इस समाज से गायब रहेगा “मुझे/हमें राजनीति से कोई लेना देना नहीं।“
हर राजनीतिक समस्या का स्त्रीवादी समाज एक तार्किक समाधान निकालेगा, इस समाधान तक पहुँचने के लिए विमर्श का सहारा लिया जायेगा, युद्ध का नहीं। आतंकवाद नहीं होगा क्योंकि सभी धर्म एक दूसरे को सम्मान की नजरों से देखेंगे, वो कुछ व्यक्ति जो दूसरे धर्म के विरोधी हैं, इस स्त्रीवादी समाज में इनका अस्तित्व ही नहीं होगा। इसके साथ साथ देश के जो संसाधन हैं उनका युक्तिपूर्ण वितरण होगा ताकि विकास की प्रक्रिया से कोई भी समूह, व्यक्ति बाहर ना रहे, हर व्यक्ति अपना सर्वांगीण विकास करने के लिए अपने जीवन के उद्देश्य बनाने के लिए भी पूर्ण स्वतंत्र होगा/गी। स्वं निर्धारित लक्ष्यों पर कोई रोक टोक नहीं होगी, चाहे वो पढ़ाई हो, नौकरी करना हो, राजनीति में जाना हो, प्रेम करना हो इत्यादि।
ट्रांसजेंडर को भी ये सब अधिकार मिले होंगे। व्यक्ति अपनी इच्छा से चलेगा/गी, अपनी पसंद/नापसंद से चलेगा/गी। गे, लेसबियन, बाय-सेक्सुअल, इत्यादि भी सम्मान के साथ इसी संस्कृति का हिस्सा होंगे, स्त्रीवादी समाज की समावेशी प्रवर्ती ही सभी को साथ लेकर चल सकती है।
स्त्रियों की माहवारी इस समाज में समस्या नहीं होगी, बल्कि सभी इसे एक प्राक्रतिक क्रिया ही मानेंगे, इस समय कोई स्त्री अशुद्ध नहीं होगी, इस समय स्त्री के मन्दिर जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा, सभी व्यक्ति चाहें वो स्त्री हो या पुरुष इसपर खुलकर बात करेंगे, स्त्रियों के साथ साथ पुरुषों को भी पता होगा के माहवारी के समय स्त्रियाँ किस दर्द से गुजरती हैं, स्त्रीवादी समाज में सभी संवेदनशील होंगे। माहवारी, पुरुषों की तुलना कम शारीरिक बल इत्यादि इस बात का प्रमाण नहीं होंगे के स्त्रियाँ कमजोर जेंडर हैं। मसल, बॉडी, शारीरिक ताकत से ज्यादा जोर चरित्र, सोच, तार्किकता, समावेशी समाज पर होगा। तो पौरुष दर्शाने वाले सभी शब्द भी स्त्रीवादी समाज में अद्रश्य रहेंगे।
सैनिकों को कोई दिक्कत नहीं होगी अगर उनकी ऑफिसर कोई महिला है, महिला पुरुष की अलग अलग टुकडियां भी स्त्रीवादी समाज में नहीं होंगी, क्योंकि ये समाज एक दूसरे के प्रति सम्मान पर आधारित होगा, तो कोई पुरुष किसी स्त्री की तरफ उसके शरीर की वजह से आकर्षित नहीं होगा, क्योंकि इस समाज में बचपन से ही सभी को स्त्री या पुरुष के शरीर के अंतर को नहीं समझाया गया, क्योंकि लड़कों को किसी ने ये नहीं बताया के सुन्दरता सिर्फ लड़कियों के पास होती है, लड़के भी सुंदर हो सकते हैं। रंग भेद इस समाज में नहीं होगा, जैसे पहले कहा, शारीरिक सुन्दरता से मन की सुन्दरता का महत्व ज्यादा होगा। इसीलिए कोई पुरुष स्त्री की तरफ शारीरिक वजहों से आकर्षित नहीं होगा, ना ही कोई स्त्री किसी पुरुष के पौरुष पर मोहित होगी। अब क्योंकि अपना साथी चुनने की आजादी इस स्त्रीवादी समाज में होगी तो हर व्यक्ति खुद तय करेगा/गी के उसके लिए कौन अच्छा है कौन नहीं, इसलिए लड़की की ना में हाँ होता है जैसे वाक्य भी नहीं होंगे, इस स्त्रीवादी समाज में लड़का या लड़की या कोई और जेंडर की ना का मतलब ना ही निकाला जाएगा।
आज के समाज में कहा जाता है के बच्चों को बचपन से कुछ बातें सिखाइए ताकि बड़े होकर वो लड़कियों की इज्जत करें? ये वाक्य शुद्ध पुरुषवाद की अवधारणा पर आधारित है, अगर बच्चों को ये सब सिखाना पड़े, समझाना पड़े तो आज का समाज समावेशी कहाँ हुआ? इन बच्चों को पुरुषवाद या पित्र्सत्ता सिखाने के लिए कई स्कूल खुले हुए हैं, कोई धर्म के नाम पर, कोई संस्कृति के नाम पर, कोई जाति के नाम पर, कोई क्षेत्र के नाम पर, इत्यादि, इनसे हमारे बच्चे कैसे बचेंगे? जरूरत स्त्रीवादी सोच की है, स्त्रीवादी समाज की है, फिर सब अपने आप ही व्यवस्थित हो जायेगा।
चलते चलते शाहीन बाग़ का एक उदाहरण देता हूँ, शाहीन बाग़ में अभी कुछ दिन पहले एक स्त्री बुर्का पहनकर गई थी, और आरोप है के वो कुछ रिकॉर्डिंग कर रही थी और सवाल जवाब कर रही थी, वहां लोगों को जब शक हुआ तो पता चला के वो आन्दोलनकारी नहीं थी, आन्दोलन विरोधी थी। जब ये पकड़ी गईं तब पुरुषो के तेवर बहुत तल्ख़ थे, व्हाट्सएप, फेसबुक, निजी बातचीत में अभद्रता भी नजर आई। शाहीन बाग़ में जब ये घटना हुई तब पुरुष ज्यादा आक्रामक दिखे, सवाल जवाब करने लगे गुस्से में, कुछ विडियो बनाने में लग गये, लेकिन तभी एक घटना घटी, शाहीन बाग़ में CAA, NRC, NPA का विरोध कर रहीं ये महिलाएं अचानक एक घेरा बनाकर उस लड़की को छुपा लीं,सवाल जवाब करने वालों को, गुस्सेल मर्दों को वहां से भगाई और कोई फोटो विडियो ना बना सके इसका पूरा ध्यान एक एक महिला ने रखा, बातचीत में कोई भी अभद्र भाषा का प्रयोग ना करे इसका पूरा ध्यान रखा, इस छोटी सी घटना से समझ जाइये के आज के इस पुरुषवादी समाज में भी महिलाएं कितनी जागरूक हैं, कितनी सजग और संवेदनशील हैं, इसी शाहीन बाग़ में उन्हें अच्छे बुरे का पता किसी भी पुरुष से जल्दी लगा और तुरंत सभी महिलाएं एक्शन में भी आईं, आप बताइए मुझे मैं एक स्त्रीवादी समाज की वकालत क्यों ना करूँ? मैं विश्व की सभी स्त्रियों से इस पुरुषवाद के खिलाफ लामबंद होकर आन्दोलन करने की गुजारिश क्यों ना करूं?मैं क्यों नहीं सभी लड़कियों से ये उम्मीद करूँ के वो इस पुरुषवाद के खिलाफ आवाज उठाना सबसे पहले अपने घर से करें? क्योंकि इस पुरुषवादी समाज में ना कोई आदर्श पिता है, ना आदर्श भाई और शादी के बाद आदर्श पति? ये सिर्फ एक भ्रम है जो इस पित्रस्त्ता ने फैलाया है, मैं क्यों स्त्रियों से स्वतंत्रता हासिल करने के लिए एकजुट होने के लिए ना बोलूं? मैं ये क्यों ना मानूं के इस पित्र्सत्ता का खात्मा सिर्फ एकजुट स्त्रियाँ ही कर सकती हैं और एक स्त्रीवादी समाज का निर्माण कर सकती हैं? मैं क्यों ना उम्मीद करूं के सिर्फ स्त्रियाँ ही बता सकती हैं के वो भोग की वस्तु नहीं हैं, वो बच्चे पैदा करने की मशीन नहीं हैं, वो भी इंसान हैं? मैं क्यों ये उम्मीद ना करूँ के स्त्रीवादी समाज में ही समाज, राज्य, पड़ोस, पर्यावरण और दुनिया सुरक्षित रह सकती है?
Dr Anurag Pandey is Assistant Professor of Political Science at University of Delhi. India. The views are personal.
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